मेरी कलम से

Monday, January 3, 2011

दूर तक मैंने बटोरे रौशनी के कारवां

दूर तक मैंने बटोरे
रौशनी के कारवां
था मुझे शायद पता
ये रात की शुरुवात है

मै लबों से कह दूँ
ये उम्मीद न करना कभी
है समुन्दर से भी गहरी
मेरे दिल की बात है

हम भरोसे के भरोसे
खा चुके हैं ठोकरें
कर भी क्या सकते थे
आखिर आदमी की ज़ात है

कम  नहीं थे हौसले
न हिम्मतों  में थी कमी
बदनसीबी की लकीरों से
सजे ये हाथ हैं

छलनी है सीना मगर
गाता रहा मीठी ग़ज़ल
बांसुरी  के जैसा शायद
मेरे दिल का साज़ है

लोग कहतें है मेरी मुस्कान
है मीठी है बहुत
उनको क्या मालूम
ये तो दर्द की सौगात है

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विकास कुमार गर्ग