मेरी कलम से

Monday, January 31, 2011

आँखें तब आँसू भर लातीं

प्रियतम की यादों से अलंकृत
उसकी पग-ध्वनि से आंदोलित
मन-वीणा की तारें झंकृत
होकर प्रिय को पास बुलातीं
आँखें तब आँसू भर लातीं

सांसारिक कार्यों से बोझिल
दिन भर हँसते हैं सबसे मिल
हृदय टूटता रहता तिल-तिल
रातें दाह और भड़कातीं
आँखें तब आँसू भर लातीं

खिली चाँदनी है अंबर में
दीप प्रकाशित हैं घर-घर में
लेकिन मेरे कातर उर में
दुख की अंधियारी गहराती
आँखें तब आँसू भर लातीं

तुम

जब तुम आए तो बहार आयी
ज़िंदगी एक सुनहरी शाम लायी
वादियों का गुलदस्ता बन तुम आये
तारों पर भी जैसे एक मुस्कुराहट छायी

यह वीरान जीवन, जैसे खिल उठा हो
रेगिस्तान में, जैसे हरियाली हो
आज हर कोई झूम रहा हो जैसे
मेरे हृदय का आँगन सुन रहा हो वैसे

आप के बिना ये संसार अधूरा था
आप के आने से जहाँ रौशन हो गया

आँखों से आँसू बह आया, तेरी याद आ गयी होगी

आँखों से आँसू बह आया, तेरी याद आ गयी होगी ।

घबराना मत यह आँसू ही कल मोती बन कर आयेंगे
विरह ताप में यह आँसू ही मन को शीतल कर जायेंगे,
शायद यह आँसू ही पथ हों महामिलन के महारास का -
इस चिंतन से सच कह दूँ ,पलकों पर बाढ़ आ गयी होगी,
तेरी याद आ गयी होगी ।


इस आँसू में ही ईश्वर बन प्रेम बहा करता है
इस आँसू में ही प्रियतम का क्षेम रहा करता है,
जब उर में प्रिय छवि बसती, इन आँखों से आँसू बहते है -
नीर बहें प्रिय हेतु कहें भीतर यह बात आ गयी होगी ,
तेरी याद आ गयी होगी ।

Saturday, January 29, 2011

टुकड़ा-टुकड़ा वक़्त चबाती तनहाई

रातों को यह नींद उड़ाती तनहाई
 टुकड़ा टुकड़ा वक़्त चबाती तनहाई
  
यादों की फेहरिस्त बनाती तनहाई
बीते दुःख को फिर सहलाती तनहाई  
  
रात के पहले पहर में आती तनहाई
सुबह का अंतिम पहर मिलाती तनहाई  
  
सन्नाटा रह रह कुत्ते सा भौंक रहा  
शब पर अपने दांत गड़ाती तनहाई  
  
यादों के बादल टप टप टप बरस रहे
अश्कों को आँचल से सुखाती तनहाई  
  
खुद से हँसना  खुद से  रोना बतियाना 
सुन सुन अपने सर को हिलाती तनहाई  
  
जीवन भर का लेखा जोखा पल भर में
रिश्तों की  तारीख  बताती  तनहाई

 सोचों के इस लम्बे सफ़र में रह रह  कर 
करवट करवट  मन बहलाती तनहाई

आज दुनियाँ में क्या नहीं होता

प्यार तुझसे हुआ नहीं होता
तो मैं इंसान सा नहीं होता

तेरी यादों की गोंद ना होती
टूटकर मैं जुड़ा नहीं होता

मंदिरों में अगर ख़ुदा मिलता
एक भी मयक़दा नहीं होता

काट दी जाती हैं झुकी डालें
पेड़ यूँ ही बड़ा नहीं होता

ताज को छू के मौलवी तू कह
पत्थरों में ख़ुदा नहीं होता

झूठ ने फेंका है अणु बम जब से
पाँव पर सच खड़ा नहीं होता

शाम की लालिमा में ना फँसता
तो दिवाकर डुबा नहीं होता

लूट लेते हैं फूल को काँटे
आज दुनियाँ में क्या नहीं होता

मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम

ऐ अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम,
तेरे उर में शायित गांधी, 'बुद्ध औ' राम,
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

हिमगिरि-सा उन्नत तव मस्तक,
तेरे चरण चूमता सागर,
श्वासों में हैं वेद-ऋचाएँ
वाणी में है गीता का स्वर।

ऐ संसृति की आदि तपस्विनि, तेजस्विनि अभिराम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

हरे-भरे हैं खेत सुहाने,
फल-फूलों से युत वन-उपवन,
तेरे अंदर भरा हुआ है
खनिजों का कितना व्यापक धन।

मुक्त-हस्त तू बाँट रही है सुख-संपत्ति, धन-धाम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

प्रेम-दया का इष्ट लिए तू,
सत्य-अहिंसा तेरा संयम,
नयी चेतना, नयी स्फूर्ति-युत
तुझमें चिर विकास का है क्रम।

चिर नवीन तू, ज़रा-मरण से - मुक्त, सबल उद्दाम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

एक हाथ में न्याय-पताका,
ज्ञान-द्वीप दूसरे हाथ में,
जग का रूप बदल दे हे माँ,
कोटि-कोटि हम आज साथ में।

गूँज उठे जय-हिंद नाद से सकल नगर औ' ग्राम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

आतंकवादी का साक्षात्कार

एक पत्रकार आतंकवादी का
साक्षात्कार लेने पहुंचा और बोला
‘भई, बड़ी मुश्किल से तुम्हें ढूंढा है
अब इंटरव्यु के लिऐ मना नहीं करना
बहुत दिन से कोई सनसनीखेज खबर नहीं मिली
इसलिये नौकरी पर बन आई है,
तुम मुझ पर रहम करना
आखिर दरियादिल आतंकवादी की
छबि तुमने पाई हैं।’
सुनकर आतंकवादी बोला
‘‘भई, हमारी मजबूरी है,
तुम्हें साक्षात्कार नहीं दे सकता
क्योंकि तुमने कमीशन देने की
मांग नहीं की पूरी है,
पता नहीं तुम यहां कैसे आ गये,
जिंदा छोड़ रहा हूं
तुम शायद सीधे और नये हो
इसलिये मुझे भा गये,
कमबख्त!
तुम्हें आर्थिक वैश्वीकरण के इस युग में
इस बात का अहसास नहीं है कि
आतंकवाद भी कमीशन और ठेके पर चलता है,
उसी पर ही हमारे अड्डे का चिराग जलता है,
टीवी पर चाहे जैसा भी दिखता हो,
अखबार चाहे जो लिखता हो,
हक़ीकत यह है कि
अगर पैसा न मिले तो हम आदमी क्या
न मारें एक परिंदा भी,
आतंक के पक्के व्यापारी हैं
कहलाते भले ही दरिंदा भी,
हमें सुरक्षा कमीशन मिल जाये
तो समझ लो हाथी सलामत निकल जाये,
न मिले तो चींटी भी गोली खाये,
आजकल निठल्ला बैठा हूं
इसका मतलब यह नहीं कि काम नहीं है
सभी चुका रहे हैं मेरा कमीशन
फिर हमला करने का कहीं से मिला दाम नहीं है,

अब इससे ज्यादा मत बोलना
निकल लो यहां से
सर्वशक्तिमान को धन्यवाद दो कि
क्योंकि अभी तुम्हारी जिंदगी ने अधिक आयु पाई है।

अपने पर ही यूं हंस लेता हूं।

अपने पर ही यूं हंस लेता हूं।
कोई मेरी इस हंसी से
अपना दर्द मिटा ले
कुछ लम्हें इसलिये उधार देता हूं।
मसखरा समझ ले जमाना तो क्या
अपनी ही मसखरी में
अपनी जिंदगी जी लेता हूं।
रोती सूरतें लिये लोग
खुश दिखने की कोशिश में
जिंदगी गुजार देते हैं
फिर भी किसी से हंसी
उधार नहीं लेते हैं
अपने घमंड में जी रहे लोग
दूसरे के दर्द पर सभी को हंसना आता है
उनकी हालतों पर रोने के लिये
मेरे पास भी दर्द कहां रह जाता है
जमाने के पास कहां है हंसी का खजाना
इसलिये अपनी अंदर ही
उसकी तलाश कर लेता हूं।

भूखे इंसान के पास देश भक्ति कहां से आयेगी,

भूखे इंसान के पास देश भक्ति कहां से आयेगी,
रोटी की तलाश में भावना कब तक जिंदा रह पायेगी।
पत्थर और लोहे से भरे शहर भले देश दिखलाते रहो
महंगाई वह राक्षसी है जो देशभक्ति को कुचल जायेगी।
———-
क्रिकेट और फिल्म में
बहलाकर
कब तक देश के भूखों की
भावनाओं को दबाओगे।
असली भारत का दर्द जब बढ़ जायेगा,
तब तुम्हारा रोम रोम भी जल जायेगा,
कब तक पर्दे पर
नकली इंडिया सजाओगे।

अपने हर हर लफ़्ज़् का ख़ुद आईना हो जाऊँगा

अपने हर हर लफ़्ज़् का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं
मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा

मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा

सारी दुनिया की नज़र में है मेरा अह्द—ए—वफ़ा
इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा
यह एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चिराग नहीं हूँ जो फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊं उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा

Sunday, January 23, 2011

जिनके पास पैसे कम हैं

महँगी हुई दीवाली
अब पापा क्या करें
पापा की जेब है खाली
अब पापा क्या करें
महँगी हुई दीवाली
अब पापा क्या करें
पापा की जेब है खाली
अब पापा क्या करें

चुन्नू को चाहिए महँगी फुलझरियां
मुन्नू को महँगे बम,पटाके
इन पर पैसे खर्च दिए तो
घर में पड़ जाएँगे फाके
अब पापा क्या करें
महँगी हुई दीवाली
अब पापा क्या करें
पापा की जेब है खाली
अब पापा क्या करें

पत्नी को चाहिए महँगी साड़ी
बिन साड़ी नहीं चलेगी गृहस्‍थी की गाड़ी
बिन साड़ी पत्नी ना माने
कहती है मत बनाओ महंगाई के बहाने
साड़ी नहीं मिली तो चली जायेगी मायके
अब पापा क्या कर
महँगी हुई दीवाली
अब पापा क्या करें
पापा की जेब है खाली
अब पापा क्या करें

आलू, पुड़ी, खीर, कचौडी
महगाई ने कमर है तोड़ी
मेवा फल मीठे पकवान
महंगाई ने भुला दिए हैं इन के नाम
कैसे लाऊँ मैं यह सब घर पर अपने
महंगाई खड़ी है घर दिवार पे मेरे जैसे लठ लिए कोई दरवान
अब पापा क्या करें
महँगी हुई दिवाली
अब पापा क्या करें
पापा की जेब है खाली
अब पापा क्या कारें

की है सिर्फ घर की सफाई
महंगाई ने छीन ली है पुताई
सजा ना पाऊं घर को में अपने
धरे रह गए मन के सब सपने
बस काम चला रहा हूँ
घर के दवार पे में अपने
बस बांध शुभ दीवाली का बन्दनवार
अब पापा क्या करे
महँगी हुई दीवाली
अब पापा क्या करें
पापा की जेब है खाली
अब पापा क्या करें

मानवता का धर्म नया है

धूप वही है, रुप वही है,
सूरज का स्वरूप वही है;
केवल उसका प्रकाश नया है,
किरणों का एहसास नया है.

दिन वही है, रात वही है,
इस दुनिया की, बात वही है;
केवल अपना आभाष नया है ,
जीवन में कोई खास नया है.

रीत वही है, मीत वही है,
जीवन का संगीत वही है;
केवल उसमें राग नया है,
मित्रों का अनुराग नया है.

नाव वही है, पतवार वही है,
बहते जल की रफ़्तार वही है;
केवल नदी का किनारा नया है,
इस जीवन का सहारा नया है.


खेत वही है, खलिहान वही है,
मेहनतकश किसान वही है;
केवल खेतों का धान नया है,
धरती का परिधान नया है.

मन वही है, तन वही है,
मेरा प्यारा वतन वही है;
केवल अपना कर्म नया है,
मानवता का धर्म नया है.

आज मां ने फिर याद किया

भूली बिसरी चितराई सी
कुछ यादें बाकी हैं अब भी
जाने कब मां को देखा था
जाने उसे कब महसूस किया
पर , हां आज मां ने फिर याद किया ।।।
बचपन में वो मां जैसी लगती थी
मैं कहता था पर वो न समझती थी
वो कहती की तू बच्चा है
जीवन को नहीं समझता है
ये जिंदगी पैसों से चलती है
तेरे लिए ये न रूकती है
मुझे तुझकों बडा बनाना है
सबसे आगे ले जाना है
पर मैं तो प्यार का भूखा था
पैसे की बात न सुनता था
वो कहता थी मैं लडता था
वो जाती थी मैं रोता था
मैं बडा हुआ और चेहरा भूल गया
मां की आंखों से दूर गया
सुनने को उसकी आवाज मै तरस गया
जाने क्यूं उसने मुझको अपने से दूर किया
पर, हां आज मां फिर ने याद किया ।।।
मैं बडा हुआ पैसे लाया
पर मां को पास न मैने पाया
सोचा पैसे से जिंदगी चलती है
वो मां के बिना न रूकती है
पर प्यार नहीं मैंने पाया
पैसे से जीवन न चला पाया
मैंने बोला मां को , अब तू साथ मेरे ही चल
पैसे के अपने जीवन को , थोडा मेरे लिए बदल
मैंने सोचा , अब बचपन का प्यार मुझे मिल जायेगा
पर मां तो मां जैसी ही थी
वो कैसे बदल ही सकती थी
उसको अब भी मेरी चिंता थी
उसने फिर से वही जवाब दिया
की तू अब भी बच्चा है
जीवन को नहीं समझता है
ये जिंदगी पैसों से चलती है
तेरे लिए ये न रूकती है
सोचा कि मैंने अब तो मां को खो ही दिया
पर, हां आज मां ने फिर याद किया ।।।

एक मुलाकात बापू से

एक दिन, मन था कुछ खिन्न
मैं बाग के कोने में बैठा था उदास
तभी सामने दिखाई दिये
महात्मा गांधी श्री मोहनदास

मैं चकरा कर बोला
”हैलो डैड , हाउ आर यू”
उत्तर मिला ”मै तो ठीक हूं
पर कौन है तू ?

लोग मुझे बापू कहते थे
तू डैड कह रहा है
हिन्दुस्तानी है या इंगलैंड में रह रहा है ?

मैंने कहा – ”आपको बुरा लगा
तो चलो मैं आपको बापू कह देता हूं
पर मैं आपके हिन्दुस्तान में नहीं
इंडिया में रहता हूं
जहां पुरानी घिसी पिटी देसी भाषा को बोलने वाला
गंवार लगता है
आजकल के लिए अयोग्य और बेकार लगता है”

गांधीजी बड़बड़ाए ”हेराम ”
फिर कुछ संभले और बोले
चलो इस बात को यहीं दो विराम

मुझे बताओ कि मेरे हिन्दुस्तान या तुम्हारे इंडिया का
क्या हाल है?

मैंने कहा- ”बापू हाल पूछना है
तो कलमाड़ियों से पूछो
भ्रष्‍टाचारियों से पूछो
कालाबाजारियों से पूछो
या राज-नीति के खिलाड़ियों से पूछो
40-40 करोड़ के गुब्बारे उड़ा रहे हैं
कुछ लुटा रहे है, कुछ दिखा रहे हैं,
कुछ खा रहे हैं, कुछ खिला रहे हैं

यह सब कामनवैल्थ खेलों का कमाल है
कहीं बल्ले बल्ले है कहीं मालामाल है

आप भी खुश हो जाओ
हमारे खिलाड़ियों पर सोना बरस रहा है
बाकी रही आम आदमी की बात
वह तब भी तरसता था आज भी तरस रहा है

वैसे बापू हमारे नेतागण,
जो तुम्हारी अहिन्सा के खूब राग गाते हैं
वे अशोका और सिद्धार्थ के नाम पर बने होटलों में
जम कर कबाब खाते हैं

सुना है तुमने हिन्दुस्तान में
ष्राब बन्दी के लिए खूब धरने, प्रदर्शन किए
न पीने दिया, न खुद पिए

पर हमारे इंडिया की राजधानी में
तुम्हारी समाधि पर, हर 2 अक्तूबर को
जो मुख्य मंत्री अपना सीस नवाते हैं
तुम्हारे आदर्शों पर चलने की कसमें खाते हैं
उनकी सरकार ने एक नया तोहफा दिया है
दिल्ली के होटलों में
शराब के साथ शबाब को मुफ्त कर दिया है

अब होटलों में शराब परोसेंगी बालाएं व सुन्‍दरियां
बैरे नहिं बैरियां

बापू जी
सजी महफिल में मस्ती में शराबी दौर होता है
पिलाए हाथ से साकी मजा कुछ और होता है

किसी शायर ने तो बापू यह भी लिखा है कि

काजू सजे हैं प्लेट मे, व्हिस्‍की गिलास में
लो आया राम-राज्य विधायक निवास में

पर हमने तो राम-राज्य का टंटा ही काट दिया
राम-राज्य को दो हिस्सों में बांट दिया
राम दे दिया बीजेपी को
जो उसके मंदिर के लिए छट्पटा रही है
राज्य दे दिया कांग्रेस को
जो उसके सहारे गुल्छर्रे उड़ा रही है

बापू आपको याद है ना
कि आपकी नेता जी सुभाष से
जोरदार हुई थी खट्पट
हमने उसका हिसाब चुका दिया है चटपट

हमारे नेताओं के भ्रष्‍ट कारनामों के कारण
अब नेताजी षब्द खोखला व खाली है
किसी को नेताजी कहो
तो लगता है, गाली है

आपका अल्पतम वस्त्रों में रहने का मार्ग
हमारे इंडिया की प्रगतिशील नारियों को
बहुत भाया है
आपके इस सिद्धान्त को
वे बड़े अदब से चूमती हैं
कम से कम वस्त्रों में
सर्वत्र घूमती हैं

पर फिक्र न करो बापू, तुम नहीं जानते कि
हमने तुम्हें भी कहां से कहां पहुचा दिया ?
जीते जी बैठते थे गन्दी बस्ती की चटाई पर ,
हमने हजार के नोट पर बैठा दिया

बापू चीख पड़े- ”चुप कर
जिसे तू कह रहा है सम्मान
वह है एक बहुत बड़ा अपमान
क्योंकि आयकर के छापों में
जब भ्रष्‍टाचारियों की तिजोरियों से
निकलते हैं गान्धी की फोटो छपे नोट
और जब ऐसे ही नोटों से ख्ररीदे जाते हैं
सांसदों के वोट
तो मेरे दिल पर लगती है करारी चोट

अच्छा है उसने मुझे मार दिया
और मैं अपनी दुर्गति देखने को नहीं जिया

मैंने समझ लिया
तुम धूर्त और पापी हो
तुमने मेरी सारी मेहनत को
मिट्टी में मिलाया है
गौडसे ने मारा था मेरे षरीर को
तुमने मेरी आत्मा को मारकर
सिर्फ मेरे नाम को भुनाया है”

तुम्हारे जाने के बाद

तुम्हारे जाने के बाद
पता नहीं
मेरी आखों को क्या हो गया है
हर वक्त तुम्हीं को देखती हैं
घर का कोना-कोना
काटने को दौड़ता है
घर की दीवारें
प्रतिध्वनियों को वापस नहीं करतीं
घर तक आने वाली पगडंडी
सामने वाला आम का बगीचा
बगल वाली बांसवाड़ी
झाड़-झंकाड़
सरसों के पीले-पीले फूल
सब झायं-झायं करते हैं
तुम्हारी खुशबू से रची-बसी
कमरे के कोने में रखी कुर्सी
तुम्हारी अनुपस्थिति से
उत्पन्न हुई
रीतेपन के कारण
आज भी उदास है
भोर की गाढ़ी नींद भी
हल्की-सी आहट से उचट जाती है
लगता है
हर आहट तुम्हारी है
लाख नहीं चाहता हूँ
फिर भी
तुमसे जुड़ी चीजें
तुम्हें
दुगने वेग से
स्थापित करती हैं
मेरे मन-मस्तिष्क में
तुम्हारे खालीपन को
भरने से इंकार करती हैं
कविताएं और कहानियां
संगीत तो
तुम्हारी स्मृति को
एकदम से
जीवंत ही कर देता है
क्या करुं
विज्ञान, नव प्रौद्यौगिकी, आधुनिकता
कुछ भी
तुम्हारी कमी को पूरा नहीं कर पाते।

मेरा प्यार

मेरा प्यार
कोई तुम्हारी सहेली तो नहीं
कि जब चाहो
तब कर लो तुम उससे कुट्टी
या कोई ईश निंदा का दोषी तो नहीं
कि बिना बहस किए
जारी कर दिया जाए
उसके नाम मौत का फतवा
या फिर
कोई मिट्टी का खिलौना तो नहीं
कि हल्की-सी बारिश आए
और गलकर खो दे वह अपनी अस्मिता
या कोई सूखी पत्तियां तो नहीं
कि छोटी-सी चिंगारी भड़के
और हो जाए वह जलकर खाक
मेरा प्यार
सच पूछो तो
तुम्हारी मोहताज नहीं
तुम्हारे बगैर भी है वह
क्योंकि मैंने कभी तुम्हें केवल देह नहीं समझा
मेरे लिए
देह से परे
कल भी थी तुम
और आज भी हो
मेरा प्यार
इसलिए जिएगा सर्वदा
तुम्हारे लिए
तुम्हारे बगैर भी
उसी तरह
जिस तरह
जी रही है
कल-कल करती नदी।

तू उठे तो उठ जाते हैं कारवाँ

तू  उठे  तो उठ जाते हैं  कारवाँ
मेरे जनाजे में ऐसा काफिला नहीं आता,

तू थी  तो हर्फ़-हर्फ़  इबादत  था
तेरे बिना दुआओं में भी असर नहीं आता

कभी हर राह की मंजिल थी  तेरी गली
अब तेरे शहर से कोई नामाबर नहीं आता

एक आंसू नहीं  बहाने का  वादा  था
निभाया, अब लहू आता है अश्क नहीं आता

मेरे दिल के  दर्द  रूह  के  सुकूं
जान जाती है मेरी तू नज़र नहीं आता

तलाश आँसुओं के ढेर में...

आँसुओं के ढेर में एक मीठी   मुस्कान ढूँढता हूँ ,
या फिर आँसुओं की धार में कुछ अंगार ढूँढता हूँ.
कोई तो जाने कि इस अनजाने से शहर में, मैं
घने सायों के बीच मुठ्ठी भर आसमान ढूँढता हूँ.
बहुत कुछ खोया मैंने  अपना सब कुछ लुटा कर,
खुशियाँ भी खोयीं, उसे बस  एक बार अपना कर.
अपनों को खोया,  उन परायों के शहर में जा कर.
अब अपने कदमों के तले, जमीं पर, अनजाना  सा,
जो अपना सा लगे, एक प्यारा  इंसान ढूँढता हूँ.
आँसुओं के ढेर में एक मीठी मुस्कान ढूँढता हूँ.
या फिर आँसुओं की धार में कुछ अंगार ढूँढता हूँ.
ये अंगार मेरे आँसुओं को सुखाने के काम आयेंगे.
बीती अच्छी-बुरी यादों को जलाने के काम आयेंगे,
इन अंगारों को भी दिल में सहेज कर रख लूँगा,
मन के  अंधेरों में रौशनी  दिखाने के काम आयेंगे.
अब तो समझो, कि क्यों  इन पत्थर के इंसानों में ,
अनजाना सा, अपना सा, प्यारा मेहमान ढूँढता हूँ.
आँसुओं के ढेर में एक मीठी मुस्कान ढूँढता हूँ.
या फिर आँसुओं की धार में कुछ अंगार ढूँढता हूँ.

Thursday, January 20, 2011

वो तुम नहीं थी

वो तुम नहीं थी
जिनकी याद जंग लगे टिन जितनी भी नहीं रही
और न ही तुम क्षितिज पर फसल काट रही औरतों मे
हो।
तुम कौन हो?
प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह
जिसका उत्तर
पूर्ण विराम के साथ नहीं दिया जा सकता।
एक पुरानी किताब,
या एक लम्बी कविता,
जिसका रचना-विधान जानने की कोशिश कर रहा हूँ
इन दिनों
जिसकी लय
जिसका अर्थ
जिसमें बुनी गयी हो फन्टेसी
प्रतीक-बिम्ब
अनुभूत यथार्थ, अजनबीयत, मिथक, नाटकीयता
और एक विचार विसंगतियों के बीच।
जिससे पनपता है
कविता जैसी किसी चीज का अस्तित्व

फिर भी कहीं किसी कोने में
केवल एक प्रश्न
सदैव के लिए
युगों से
युगों के बाद भी
जिसका एकान्त होने न होने के बीच सुलगता है
सदियों के भीतर

डनलप के गद्दों के बीच की स्थिति सा
माणा या गंजी की अन्तिम सीमा पर
देश की सीमा के साथ बाँधा गया भूभाग हो तुम
या फिर समझौता की कोई एक्सप्रेस
जिन्हें तय करते है देश के सत्ताधारी लोग
फिर भी इस आधी रात को
जब हीटर के तार सुलग रहे हैं
और तब कैसे सुलगती है कविता
सेंचुरी के पन्नों के भीतर
रेनोल्ड्स की इस कलम से
बेहतर शब्द निकाल लेने की जिद कहाँ तक जायज है

जब तुम सुलग रही हो
मध्य हिमालय की बर्फ ढ़की पहाड़ियों में कहीं
तब नदियाँ कैसे दे सकती है
शीतल पानी
फिर भी तुम्हारे अपने किले है
तुम्हारे अपने झण्ड़े है
तुम्हारे अपने गीत है
वही गीत जो तुम्हारा खसम गाता था
गुसांईयों के दरबार में
और तुम नाचती थी फटी धोती में
ओ हुड़किया की हुड़क्याणी
तुम भुन्टी थी
और तुम्हारा खसम सुन्दरिया
जिसने आजीवन दरवाजे पर बैठकर
गुसाईयों के घर में चाय पी-
गिलास धोकर उल्टा कर दिया
ताकि सूख सके
जिल्लत भरी जिन्दगी
तुम्हारे लिए कौन था?
तुम्हारे लिए कौन है?

काने धान की पोटली भर संवेदना थी तुम
या ठाकुरों के कुल देवता के मंदिर से बचा हुआ
गड्ड-मड्ड शिकार-भात
और कुछ नहीं
फिर भी कौन थी तुम
जिसके होने में महकता रहा
मध्य हिमालय का लोक जीवन।

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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।


जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।


आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।


मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?


मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।


मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।


स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

Monday, January 3, 2011

दूर तक मैंने बटोरे रौशनी के कारवां

दूर तक मैंने बटोरे
रौशनी के कारवां
था मुझे शायद पता
ये रात की शुरुवात है

मै लबों से कह दूँ
ये उम्मीद न करना कभी
है समुन्दर से भी गहरी
मेरे दिल की बात है

हम भरोसे के भरोसे
खा चुके हैं ठोकरें
कर भी क्या सकते थे
आखिर आदमी की ज़ात है

कम  नहीं थे हौसले
न हिम्मतों  में थी कमी
बदनसीबी की लकीरों से
सजे ये हाथ हैं

छलनी है सीना मगर
गाता रहा मीठी ग़ज़ल
बांसुरी  के जैसा शायद
मेरे दिल का साज़ है

लोग कहतें है मेरी मुस्कान
है मीठी है बहुत
उनको क्या मालूम
ये तो दर्द की सौगात है