मेरी कलम से

Wednesday, April 13, 2011

भारत में भ्रष्टाचार की समस्या

भारत में वैसे तो अनेक समस्याएं विद्यमान हैं जिसके कारण देश की प्रगति धीमी है। उनमें प्रमुख है बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, आदि लेकिन उन सबमें वर्तमान में सबसे ज्यादा यदि कोई देश के विकास को बाधित कर रहा है तो वह है भ्रष्टाचार की समस्या। आज इससे सारा देश संत्रस्त है। लोकतंत्र की जड़ो को खोखला करने का कार्य काफी समय से इसके द्वारा हो रहा है। और इस समस्या की हद यह है कि इसके लिए भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री तक को कहना पड़ गया था कि रूपये में मात्र बीस पैसे ही दिल्ली से आम जनता तक पंहुच पाता है।
वास्तव में यह स्थिति सिर्फ एक दिन में ही नहीं बनी है। भारत को जैसे ही अंग्रेजी दासता से मुक्ति मिलने वाली थी उसे खुली हवां में सांस लेने का मौका मिलने वाला था उसी समय सत्तालोलुप नेताओं ने देश का विभाजन कर दिया और उसी समय स्पष्ट हो गया था कि कुछ विशिष्ट वर्ग अपनी राजनैतिक भूख को शांत करने के लिए देश हित को ताक मे रखने के लिए तैयार हो गये हैं। खैर बीती ताहि बिसार दे। उस समय की बात को छोड वर्तमान स्थिति में दृष्टि डालें तो काफी भयावह मंजर सामने आता है। भ्रष्टाचार ने पूरे राष्ट्र को अपने आगोश में ले लिया है। वास्तव में भ्रष्टाचार के लिए आज सारा तंत्र जिम्मेदार है। एक आम आदमी भी किसी शासकीय कार्यालय में अपना कार्य शीध्र करवाने के लिए सामने वाले को बंद लिफाफा सहज में थमाने को तैयार है। 100 में से 80 आदमी आज इसी तरह कार्य करवाने के फिराक में है। और जब एक बार किसी को अवैध ढंग से ऐसी रकम मिलने लग जाये तो निश्चित ही उसकी तृष्णा और बढेगी और उसी का परिणाम आज सारा भारत देख रहा है।
भ्रष्टाचार में सिर्फ शासकीय कार्यालयों में लेने देनेवाले घूस को ही शामिल नहीं किया जा सकता बल्कि इसके अंदर वह सारा आचरण शामिल होता है जो एक सभ्य समाज के सिर को नीचा करने में मजबूर कर देता है। भ्रष्टाचार के इस तंत्र में आज सर्वाधिक प्रभाव राजनेताओं का ही दिखाई देता है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तो तब देखने को मिला जब नागरिकों द्वारा चुने हुए सांसदों के द्वारा संसद भवन में प्रश्न तक पूछने के लिए पैसे लेने का प्रमाण कुछ टीवी चैनलों द्वारा प्रदर्शित किया गया।
कभी कफन घोटाला, कभी चारा – भूसा घोटाला, कभी दवा घोटाला, कभी ताबूत घोटाला तो कभी खाद घोटाला आखिर ये सब क्या इंगित करता है। ये सारे भ्रष्टाचार के एक उदाहरण मात्र हैं।
बात करें भारत को भ्रष्टाचार से बचाने के लिए तो जिन लोगों को आगे आकर भ्रष्टाचार को समाप्त करने का प्रयास कर समाज को दिशा निर्देश देना चाहिए वे स्वयं ही भ्रष्ट आचरण में आकंठ डूबे दिखाई देते है।
वास्तव में देश से यदि भ्रष्टाचार मिटाना है तो ने सिर्फ साफ स्वच्छ छवि के नेताओं का चयन करना होगा बल्कि लोकतंत्र के नागरिको को भी सामने आना होगा। उन्हें प्राणपण से यह प्रयत्न करना होगा कि उन्हें भ्रष्ट लोगों को समाज से न सिर्फ बहिष्कृत करना होगा बल्कि उच्चस्तर पर भी भ्रष्टाचार में संलिप्त लोगों का बायकॉट करना होगा। अपनी आम जरूरतों को पूरा करने एवं शीर्ध्रता से निपटाने के लिए बंद लिफाफे की प्रवृत्ति से बचना होगा। कुल मिला जब तब लोकतंत्र में आम नागरिक एवं उनके नेतृत्व दोनों ही मिलकर यह नहीं चाहेंगे तब तक भ्रष्टाचार के जिन्न से बच पाना असंभव ही है।

अन्ना हजारे का साथ दीजिए

गांधीवादी नेता अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो अभियान शुरू किया है, उसकी जितनी सराहना की जाए, वह कम है। हमें अन्ना हजारे का साथ देना चाहिए। भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है, यदि सत्ता प्रतिष्ठानों के शीर्ष पर बैठे लोग ईमानदारी व निष्पक्षता से काम करें। यदि हांगकांग में भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है, तो भारत में क्यों नहीं हो सकता? दरअसल, असली समस्या यह है कि हमारी सरकार हर किस्म के अपराधियों को क्षमादान देने में विश्वास करती है। इसलिए देशवासियों को अन्ना हजारे का साथ देना चाहिए।

Wednesday, April 6, 2011

जागो भारत जागो !

हम मैंगो पीपुल नहीं हैं ! जब कोई आया, हमें मीठा है कह कर चूस लिया और गुठली बना कर फेक दिया | जागो भारत जागो !
महात्मा गांधी ने नमक क़ानून तोड़ने की नोटिस 2 March 1930 को देते हुए अंग्रेज वायसराय को लंबा पत्र लिखा था —
“…जिस अन्याय का उल्लेख किया गया है वह उस विदेशी शासन को चलाने के लिए किया जाता है, जो स्पष्टतह संसार का सबसे महँगा शासन है. अपने वेतन को ही लीजिये, यह प्रतिमाह 21 हजार रुपये से अधिक पड़ता है, अप्रत्यक्ष भत्ते आदि अलग. यानी आपको प्रतिदिन 700 रूपये से अधिक मिलता है, जबकि भारत की प्रति व्यक्ति औसत आमदनी दो आने प्रति दिन से भी कम है | इस प्रकार आप भारत की प्रति व्यक्ति औसत आमदनी से पांच हजार गुने से भी अधिक ले रहे हैं. ब्रिटिश प्रधान मंत्री ब्रिटेन की औसत आमदनी का सिर्फ 90 गुना ही लेते हैं | यह निजी दृष्टांत मैंने एक दुखद सत्य को आपके गले उतारने के लिए लिया है….”
गुजरी सदी में उठाया गया गांधी का यह सवाल इस सदी में भारत के राष्ट्रपति – प्रधानमंत्री और शाशन व्यवस्था के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक है. औसत भारतीय की रोजाना की आमदनी 32 रुपये के लगभग है जबकि राष्ट्रपति पर रोज 5 लाख 14 हजार से ज्यादा खर्च होता है जो औसत भारतीय की तुलना में 16063 गुना अधिक है. इसी प्रकार प्रधानमंत्री पर रोजाना 3 लाख 38 हजार रूपये खर्च आता है जो औसत भारतीय की आमदनी का 10562 गुना अधिक है. केन्द्रीय मंत्रिमंडल
पर रोजाना का खर्चा लगभग 25 लाख रुपये है जो औसत भारतीय की आमदनी का 1 लाख 5
हजार गुना है.”
हम हथियार आयात करने में दुनिया में पहले नंबर पर हैं लेकिन प्रतिव्यक्ति आय में दुनिया 147 वें स्थान पर. 29 करोड़ प्रौढ़ आज भी अशिक्षित हैं. 5 करोड़ बच्चों ने प्रारंभिक स्कूल का मुह भी नहीं देखा है. 14 करोड़ लोगों को प्राथमिक स्वास्थ सेवाएं तक उपलब्ध नहीं हैं. विशिष्ठ लोगों की सुरक्षा पर 361 करोड़ रुपये खर्च होता है. मंत्री परिषद् पर 50 करोड़ 52 लाख रुपये की बजट में व्यवस्था है. सरकार चलाने से सात गुना अधिक इन मंत्रियों की सुरक्षा पर खर्च है. हम ऐसे लोगों को मंत्री क्यों बनाते हैं जिन्हें प्राणों के लाले पड़े हों और जनता मार डालना चाहती हो ? ”

Tuesday, April 5, 2011

हर ज़ुल्म जिसका आज तक सहते रहे

हर सितम हर ज़ुल्म जिसका आज तक सहते रहे
हम उसी के वास्ते हर दिन दुआ करते रहे
दिल के हाथों आज भी मजबूर हैं तो क्या हुआ
मुश्किलों के दौर में हम हौसला रखते रहे
बादलों की बेवफ़ाई से हमें अब क्या गिला
हम पसीने से ज़मीं आबाद जो करते रहे
हमको अपने आप पर इतना भरोसा था कि हम
चैन खोकर भी हमेशा चैन से रहते रहे
चाँद सूरज को भी हमसे रश्क होता था कभी
इसलिए कि हम उजाला हर तरफ़ करते रहे
हमने दुनिया को बताया था वफ़ा क्या चीज़ है
आज जब पूछा गया तो आसमाँ तकते रहे
हम तो पत्थर हैं नहीं फिर पिघलते क्यों नहीं
भावनाओं की नदी में आज तक बहते रहे

Saturday, April 2, 2011

दर्द का रिश्ता अज़ीज़ था

ख़ुश-फ़हमियों को दर्द का रिश्ता अज़ीज़ था
काग़ज़ की नाव थी, जिसे दरिया अज़ीज़ था
ऐ! तंगी-ए-दयारे-तमन्ना! बता मुझे
वो पाँव क्या हुए जिन्हें सहरा अज़ीज़ था
पूछो न कुछ कि शहर में तुम हो नए-नए
इक दिन मुझे भी सैरो-तमाशा अज़ीज़ था
इक रस्मे बेवफ़ाई थी, वह भी हुई तमाम
वह यारे-बेवफ़ा मुझे कितना अज़ीज़ था
यादें मुझे न ज़ुर्मे-तअल्लुक़ की दें सज़ा
मेरा कोई न मैं ही किसी का अज़ीज़ था

बच्चों को शिक्षा कैसे

पिछले वर्ष एक अप्रैल को जब भारत सरकार ने शिक्षा के अधिकार का कानून लागू किया था, तब करोड़ों लोगों के मन में यह आशा जगी थी कि देश का हर बच्चा अब स्कूल में होगा। स्कूलों की हालात सुधरेगी। मास्टरजी पूरा समय लगाकर बच्चों को पढ़ाएंगे और किसी भी बच्चे या उसके अभिभावक से शिक्षा के अधिकार की कोई कीमत नहीं वसूली जाएगी। यानी 14 वर्ष तक के हर बच्चे को मुफ्त तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलेगी। साल भर बाद यदि हम इस दिशा में हुई प्रगति का आकलन करने बैठें, तो कोई बहुत उत्साहजनक रिपोर्ट कार्ड दिखाई नहीं देता। चाहे वह केंद्र सरकार की बात हो या राज्य सरकारों की।
पिछले साल भर में सरकार के लंबे -चौड़े दावों से इतर तीन महत्वपूर्ण गैर सरकारी रिपोर्टे जारी हुई हैं। पहली, ‘प्रथम’ की ‘असर-2010 रिपोर्ट’, दूसरी, ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की ‘शिक्षा पर जन सुनवाई रिपोर्ट-2011’ और तीसरी राष्ट्रीय शिक्षा संकुल की ‘एडवॉच रिपोर्ट-2011’। इन सभी में जो चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं, वे हैं कक्षाओं में बच्चों की उपस्थिति, स्कूलों में जरूरी सहूलियतों, पठन-पाठन तथा खेल सामग्री का अभाव और शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आदि।
शिक्षा मंत्री ने स्वयं स्वीकार किया है कि पिछले वर्ष प्राथमिक कक्षाओं में भर्ती की दर में गिरावट आई है। अलबत्ता कई राज्यों में स्कूलों में दाखिले की संख्या जरूर बढ़ी है, लेकिन जनसंख्या-वृद्धि के अनुपात में यह रफ्तार कम है। सरकारी आकंड़ो के मुताबिक, लगभग 75-76 लाख बच्चों ही आज स्कूलों से बाहर हैं। यदि स्कूल छोड़ चुके बच्चों की संख्या को भी जोड़ा जाए, तो कम से कम 5-6 करोड़ बच्चों शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के बावजूद स्कूलों में नहीं हैं।
भारत में विकलांगता के शिकार लगभग छह करोड़ व्यक्तियों में 20 प्रतिशत संख्या बच्चों की है। हर साल जन्म लेने वाले कुल बच्चों में 80 लाख से लेकर 1 करोड़ तक विकलांग होते हैं। स्कूल में भर्ती हो सकने में सामान्य बच्चों के मुकाबले विकलांग बच्चों की संभावना 5 गुना कम होती है। इसी तरह एचआईवी और एड्स के संक्रमण के शिकार 22 लाख बच्चों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भले ही शिक्षा मंत्रालय बड़ी संख्या में स्कूल भवन बनवा दे, अधिक शिक्षकों की नियुक्ति हो जाए, बजट पर्याप्त मात्रा में बढ़ जाए और दूसरी सभी सुविधाएं उपलब्ध करा दी जाएं, तो भी खदानों, कारखानों या घरों में बंधुआ बने बच्चे अपने आप स्कूल नहीं पहुंच पाएंगे।
पिछले वर्ष बने शिक्षा के अधिकार के कानून, केंद्र व राज्य सरकारों की शिक्षा नीतियों तथा सर्वशिक्षा अभियानों जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में इस बात का कोई जवाब नहीं मिलता कि उपरोक्त श्रेणी के बच्चों को स्कूल तक लाने और पढ़ाई पूरी कराने के क्या उपाय किए गए हैं। न ही इन समस्याओं की ठीक-ठीक पहचान की गई। अलग से संसाधन मुहैया कराना तो और भी दूर की बात है। इस सिलसिले में मौलिक उपाय खोजे जाने चाहिए। उदाहरण के तौर पर, तमाम भ्रष्टाचार और सीमाओं के बावजूद हमारे देश में चल रहा मध्याह्न भोजन का कार्यक्रम गरीब बच्चों को स्कूलों की तरफ आकर्षित करने में काफी सफल रहा है। मात्र इतने पर ही संतुष्ट होकर इसी का ढिंढोरा पीटते रहना उचित नहीं है।
ईंट-भट्ठे, खदान या सर्कस में काम कर रही एक गुलाम बच्ची को स्कूल में देखने का सपना किसी भी एकांगी प्रयास से पूरा नहीं किया जा सकता। कल्पना कीजिए कि बिहार या झारखंड की किसी बच्ची को बाल तस्करी द्वारा हरियाणा या पंजाब में लाकर बंधुआ मजादूरिन बनाकर रखा गया है, जहां वह यौन शोषण सहित कई प्रकार के अत्याचारों की शिकार बनी हुई है।
क्या बिहार में उसके गांव के स्कूल हेडमास्टर उस बच्ची की पढ़ाई सुनिश्चित कर सकेंगे? यह तो खुद शिक्षा मंत्री महोदय के बस की बात भी नहीं है, जब तक कि पुलिस-प्रशासन उसे मुक्त न करा दे, श्रम विभाग तथा बाल कल्याण समिति स्थानीय मजिस्ट्रेट के साथ संयुक्त कार्रवाई करके उस बच्ची की कानूनी रिहाई और वापसी का इंतजाम न करें, स्वास्थ्य विभाग तत्काल उपचार शुरू न करे और उसके गृह राज्य के राजस्व, बाल एवं महिला कल्याण आदि विभाग उसका पुनर्वास सुनिश्चित न करें।
स्कूल में दाखिले से पहले सामाजिक संगठनों या सरकारी अधिकारियों द्वारा उसकी मानसिक, मनोवैज्ञानिक व शैक्षणिक तैयारी भी जरूरी है। यदि सब कुछ ठीक-ठाक हो जाए, तब भी हेडमास्टर साहब, अभिभावकों और परिजनों का उस बच्ची की पढ़ाई के लिए तैयार हो जाना जरूरी है। साफ है, विषम परिस्थिति में रह रहे या हाशिये पर छूट गए बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित करना कई विभागों एवं मंत्रालयों के संयुक्त प्रयास से ही संभव हो सकता है, जिसका हमारे देश में घोर अभाव है।

Friday, April 1, 2011

हैवान बनाती है दहेज प्रथा

दहेज के कीड़े समाज में बढ़तें जा रहे हैं। दहेज इंसानियत के नाम पर कलंक हैं। कोई भी चीज इंसान को हैवान बना दे उसे कलंक की वस्तु ही कहा जाना चाहिए। दहेज लेने का नशा ही आज इंसान को हैवान बना रहा हैं। दहेज के खातिर मार-पीट करने की, तंग करने की घटनाएं आज आम सुनने को मिलती हैं। कई हैवान किस्म के लोग दहेज के खातिर लड़की को जान से मारने से भी नहीं चुकते। दहेज की बलि देवी पर जान कुर्बान करने वाली लड़कियां सही मायने में अपना प्रतिरोध नहीं कर पाती। दहेज के खातिर लड़कियों को तंग करना, उन्हे जान से मार देना सरासर कायरता हैं। हर मां-बाप अपनी बेटी को लाड़-प्यार से पालते हैं। उसे उच्च से उच्च शिक्षा दिलाते है। उसकी हर ख्वाहिश को पूरी करते है। उसकी शादी के सुनहरे सपने देखते हैं, लेकिन शादी उपरांत दहेज के दानव उनकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर देते हैं। लड़की के मां-बाप लड़के वालो की हर इच्छा पर बड़ी कुशलता से पालन करते हैं। पर इसके बावजूद दहेज के दानव इनकी भावनाओं को चकनाचूर कर देते हैं। दहेज के दानव लड़की से इतना दुव्र्यवहार करते है कि वह सूखकर कांटा हो जाती हैं। वे इतना भी नही सोचते कि बेटे की शादी में दहेज की मांग करने वालो को भी कभी अपनी बेटी की शादी करनी होगी। उन्हे सिर्फ इतना याद रहता है कि वे लडके वाले हैं और उन्हे ज्यादा से ज्यादा दहेज लेना हैं। आज की युवा पीढ़ी को दहेज प्रथा का कड़ा विरोध करना होगा। उन्हे दहेज के कीड़ों को खत्म करने कि लिए आगे आना होगा। इन दहेज के कीड़ों पर इस प्रकार की दवा छिड़कनी होगी कि वे समूल ही नष्ट हो जाए। युवाओं को दहेज न लेने का दृढ़ संकल्प करना होगा। ज्यादातर देखने को आता है कि लड़की के मां-बाप अपनी बेटी को अधिक से अधिक दहेज देकर खुश देखना चाहते हैं, परन्तु उन्हे नहीं मालूम की वह दहेज देकर उन्हे दहेज लोभी बना रहे हैं। जिसके कारण लड़के वालो की इच्छाएं बढ़ती जाती हैं। जिसके फ लस्वरूप लड़की के माता-पिता को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता हैं। आजकल के लोग शादियों में लाखों का धन उड़ा देते है, जिसका कोई लाभ नहीं होता। वे जितने रूपये एक लड़की की शादी में खर्च करते हैं उतने रूपयों में कम से कम 25-30 लड़कियों का घर बस सकता हैं। आज समाज के सभी लोग कैंसर रूपी दहेज को भारत की सरजमीन से नेस्ताबूत या उखाड़ फें कने का दृढ़ संकल्प ले और प्रण करें कि न दहेज लेंगे और न दहेज देंगे। दहेज को लेकर मासूम लड़कियों की हत्या करने वाले दहेज लोभियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। इसके प्रति रहम नाम की कोई चीज नहीं होनी चाहिए। जब हमारी सरकार और समाज दोनो मिलकर दहेज लोभियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करेंगे तो निश्चित ही दहेज हत्याओं का दौर थमेगा।

दर्द

Dardहम दर्द को दबाते रहे, ये फूट फूट निकलता रहा                             
कभी चेहरे से झलकता रहा, कभी आँखों से छलकता रहा.
हम हर मोड़ पर पुकारा किए और वो हमसे बचके चलता रहा.
कितनी दफ़ा गिरे हम राहों मे वो बस दूर से तकता रहा.
हमेशा ख्वाब सा ही बनकर रहा मेरे लिए वो,
मैं हरदम पकड़ता रहा, वो ओस सा पिघलता रहा.
हम दर्द को दबाते रहे, ये फूट फूट निकलता रहा
कभी चेहरे से झलकता रहा, कभी आँखों से छलकता रहा.

बेरोजगारी

आर्थिक मंदी का दौर कम होने के बावजूद भी दुनिया में युवाओं की बेरोजगारी दर का आंकड़ा सर्वोच्च स्तर पर पहंच गया है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर के युवाओं में बेरोजगारी का आंकड़ा रिकॉर्ड स्तर को पार कर गया है.

आइएलओ की ग्लोबल एम्प्लॉयमेंट ट्रेंड्स फ़ॉर यूथ 2010 रिपोर्ट के मुताबिक बेरोजगारी दर वर्ष 2007 के 119 फ़ीसदी की तुलना में बढ़ कर  2009 में 130 फ़ीसदी पहंच गयी है.

वर्ष
2009 के अंत तक 62 करोड़ युवाओं में से 81 करोड़ के पास नौकरी नहीं थी. बेरोजगारों में अधिकतर 24 साल से कम आयु के युवा हैं.फिलहाल जारी रहेगा सिलसिला  रिपोर्ट के मुताबिक इस साल बेरोजगारी दर बढ़ कर 131 फ़ीसदी होने की संभावना है.

पिछले दो साल में वयस्कों की तुलना में युवाओं को बेरोजगारी की मार अधिक ङोलनी पड़ी है.  रिपोर्ट से पता चलता है कि अधिकांश बेरोजगार गरीब व विकासशील देशों में हैं और वहां नौकरी खोने का खतरा भी सबसे अधिक है.

आइएलओ ने अब तक विश्व में बेरोजगारी के बारे में जितने आंकलन किये हैं उनमें बेरोजगारों का ये आंकड़ा सबसे अधिक है. करीबन
81 करोड़ युवा दक्ष होते हुए भी बेरोजगार हैं.