मेरी कलम से

Thursday, January 20, 2011

वो तुम नहीं थी

वो तुम नहीं थी
जिनकी याद जंग लगे टिन जितनी भी नहीं रही
और न ही तुम क्षितिज पर फसल काट रही औरतों मे
हो।
तुम कौन हो?
प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह
जिसका उत्तर
पूर्ण विराम के साथ नहीं दिया जा सकता।
एक पुरानी किताब,
या एक लम्बी कविता,
जिसका रचना-विधान जानने की कोशिश कर रहा हूँ
इन दिनों
जिसकी लय
जिसका अर्थ
जिसमें बुनी गयी हो फन्टेसी
प्रतीक-बिम्ब
अनुभूत यथार्थ, अजनबीयत, मिथक, नाटकीयता
और एक विचार विसंगतियों के बीच।
जिससे पनपता है
कविता जैसी किसी चीज का अस्तित्व

फिर भी कहीं किसी कोने में
केवल एक प्रश्न
सदैव के लिए
युगों से
युगों के बाद भी
जिसका एकान्त होने न होने के बीच सुलगता है
सदियों के भीतर

डनलप के गद्दों के बीच की स्थिति सा
माणा या गंजी की अन्तिम सीमा पर
देश की सीमा के साथ बाँधा गया भूभाग हो तुम
या फिर समझौता की कोई एक्सप्रेस
जिन्हें तय करते है देश के सत्ताधारी लोग
फिर भी इस आधी रात को
जब हीटर के तार सुलग रहे हैं
और तब कैसे सुलगती है कविता
सेंचुरी के पन्नों के भीतर
रेनोल्ड्स की इस कलम से
बेहतर शब्द निकाल लेने की जिद कहाँ तक जायज है

जब तुम सुलग रही हो
मध्य हिमालय की बर्फ ढ़की पहाड़ियों में कहीं
तब नदियाँ कैसे दे सकती है
शीतल पानी
फिर भी तुम्हारे अपने किले है
तुम्हारे अपने झण्ड़े है
तुम्हारे अपने गीत है
वही गीत जो तुम्हारा खसम गाता था
गुसांईयों के दरबार में
और तुम नाचती थी फटी धोती में
ओ हुड़किया की हुड़क्याणी
तुम भुन्टी थी
और तुम्हारा खसम सुन्दरिया
जिसने आजीवन दरवाजे पर बैठकर
गुसाईयों के घर में चाय पी-
गिलास धोकर उल्टा कर दिया
ताकि सूख सके
जिल्लत भरी जिन्दगी
तुम्हारे लिए कौन था?
तुम्हारे लिए कौन है?

काने धान की पोटली भर संवेदना थी तुम
या ठाकुरों के कुल देवता के मंदिर से बचा हुआ
गड्ड-मड्ड शिकार-भात
और कुछ नहीं
फिर भी कौन थी तुम
जिसके होने में महकता रहा
मध्य हिमालय का लोक जीवन।

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विकास कुमार गर्ग