मेरी कलम से

Sunday, January 23, 2011

तुम्हारे जाने के बाद

तुम्हारे जाने के बाद
पता नहीं
मेरी आखों को क्या हो गया है
हर वक्त तुम्हीं को देखती हैं
घर का कोना-कोना
काटने को दौड़ता है
घर की दीवारें
प्रतिध्वनियों को वापस नहीं करतीं
घर तक आने वाली पगडंडी
सामने वाला आम का बगीचा
बगल वाली बांसवाड़ी
झाड़-झंकाड़
सरसों के पीले-पीले फूल
सब झायं-झायं करते हैं
तुम्हारी खुशबू से रची-बसी
कमरे के कोने में रखी कुर्सी
तुम्हारी अनुपस्थिति से
उत्पन्न हुई
रीतेपन के कारण
आज भी उदास है
भोर की गाढ़ी नींद भी
हल्की-सी आहट से उचट जाती है
लगता है
हर आहट तुम्हारी है
लाख नहीं चाहता हूँ
फिर भी
तुमसे जुड़ी चीजें
तुम्हें
दुगने वेग से
स्थापित करती हैं
मेरे मन-मस्तिष्क में
तुम्हारे खालीपन को
भरने से इंकार करती हैं
कविताएं और कहानियां
संगीत तो
तुम्हारी स्मृति को
एकदम से
जीवंत ही कर देता है
क्या करुं
विज्ञान, नव प्रौद्यौगिकी, आधुनिकता
कुछ भी
तुम्हारी कमी को पूरा नहीं कर पाते।

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विकास कुमार गर्ग