मेरी कलम से

Tuesday, May 17, 2011

बस तुम्हे देखता हूं

नज़र बचा के नज़र से देखता हूँ
तुम बुरा न मान जाओ इस डर से देखता हूँ
रोज़ देखता हूँ रोज़ नई नज़र आती हो
इसलिए तुम्हे रोज़  नई नज़र से देखता हूँ
पर जब मैंने तुम्हारे चेहरे के किताब को पढ़ा तो मुझे ये मालूम पड़ा 
तुम ये सोचती हो की में तुम्हे बुरी नज़र से देखता हूँ

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विकास कुमार गर्ग