मेरी कलम से

Tuesday, April 5, 2011

हर ज़ुल्म जिसका आज तक सहते रहे

हर सितम हर ज़ुल्म जिसका आज तक सहते रहे
हम उसी के वास्ते हर दिन दुआ करते रहे
दिल के हाथों आज भी मजबूर हैं तो क्या हुआ
मुश्किलों के दौर में हम हौसला रखते रहे
बादलों की बेवफ़ाई से हमें अब क्या गिला
हम पसीने से ज़मीं आबाद जो करते रहे
हमको अपने आप पर इतना भरोसा था कि हम
चैन खोकर भी हमेशा चैन से रहते रहे
चाँद सूरज को भी हमसे रश्क होता था कभी
इसलिए कि हम उजाला हर तरफ़ करते रहे
हमने दुनिया को बताया था वफ़ा क्या चीज़ है
आज जब पूछा गया तो आसमाँ तकते रहे
हम तो पत्थर हैं नहीं फिर पिघलते क्यों नहीं
भावनाओं की नदी में आज तक बहते रहे

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विकास कुमार गर्ग