पिछले वर्ष एक अप्रैल को जब भारत सरकार ने शिक्षा के अधिकार का कानून लागू किया था, तब करोड़ों लोगों के मन में यह आशा जगी थी कि देश का हर बच्चा अब स्कूल में होगा। स्कूलों की हालात सुधरेगी। मास्टरजी पूरा समय लगाकर बच्चों को पढ़ाएंगे और किसी भी बच्चे या उसके अभिभावक से शिक्षा के अधिकार की कोई कीमत नहीं वसूली जाएगी। यानी 14 वर्ष तक के हर बच्चे को मुफ्त तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलेगी। साल भर बाद यदि हम इस दिशा में हुई प्रगति का आकलन करने बैठें, तो कोई बहुत उत्साहजनक रिपोर्ट कार्ड दिखाई नहीं देता। चाहे वह केंद्र सरकार की बात हो या राज्य सरकारों की।
पिछले साल भर में सरकार के लंबे -चौड़े दावों से इतर तीन महत्वपूर्ण गैर सरकारी रिपोर्टे जारी हुई हैं। पहली, ‘प्रथम’ की ‘असर-2010 रिपोर्ट’, दूसरी, ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की ‘शिक्षा पर जन सुनवाई रिपोर्ट-2011’ और तीसरी राष्ट्रीय शिक्षा संकुल की ‘एडवॉच रिपोर्ट-2011’। इन सभी में जो चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं, वे हैं कक्षाओं में बच्चों की उपस्थिति, स्कूलों में जरूरी सहूलियतों, पठन-पाठन तथा खेल सामग्री का अभाव और शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आदि।
शिक्षा मंत्री ने स्वयं स्वीकार किया है कि पिछले वर्ष प्राथमिक कक्षाओं में भर्ती की दर में गिरावट आई है। अलबत्ता कई राज्यों में स्कूलों में दाखिले की संख्या जरूर बढ़ी है, लेकिन जनसंख्या-वृद्धि के अनुपात में यह रफ्तार कम है। सरकारी आकंड़ो के मुताबिक, लगभग 75-76 लाख बच्चों ही आज स्कूलों से बाहर हैं। यदि स्कूल छोड़ चुके बच्चों की संख्या को भी जोड़ा जाए, तो कम से कम 5-6 करोड़ बच्चों शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के बावजूद स्कूलों में नहीं हैं।
भारत में विकलांगता के शिकार लगभग छह करोड़ व्यक्तियों में 20 प्रतिशत संख्या बच्चों की है। हर साल जन्म लेने वाले कुल बच्चों में 80 लाख से लेकर 1 करोड़ तक विकलांग होते हैं। स्कूल में भर्ती हो सकने में सामान्य बच्चों के मुकाबले विकलांग बच्चों की संभावना 5 गुना कम होती है। इसी तरह एचआईवी और एड्स के संक्रमण के शिकार 22 लाख बच्चों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भले ही शिक्षा मंत्रालय बड़ी संख्या में स्कूल भवन बनवा दे, अधिक शिक्षकों की नियुक्ति हो जाए, बजट पर्याप्त मात्रा में बढ़ जाए और दूसरी सभी सुविधाएं उपलब्ध करा दी जाएं, तो भी खदानों, कारखानों या घरों में बंधुआ बने बच्चे अपने आप स्कूल नहीं पहुंच पाएंगे।
पिछले वर्ष बने शिक्षा के अधिकार के कानून, केंद्र व राज्य सरकारों की शिक्षा नीतियों तथा सर्वशिक्षा अभियानों जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में इस बात का कोई जवाब नहीं मिलता कि उपरोक्त श्रेणी के बच्चों को स्कूल तक लाने और पढ़ाई पूरी कराने के क्या उपाय किए गए हैं। न ही इन समस्याओं की ठीक-ठीक पहचान की गई। अलग से संसाधन मुहैया कराना तो और भी दूर की बात है। इस सिलसिले में मौलिक उपाय खोजे जाने चाहिए। उदाहरण के तौर पर, तमाम भ्रष्टाचार और सीमाओं के बावजूद हमारे देश में चल रहा मध्याह्न भोजन का कार्यक्रम गरीब बच्चों को स्कूलों की तरफ आकर्षित करने में काफी सफल रहा है। मात्र इतने पर ही संतुष्ट होकर इसी का ढिंढोरा पीटते रहना उचित नहीं है।
ईंट-भट्ठे, खदान या सर्कस में काम कर रही एक गुलाम बच्ची को स्कूल में देखने का सपना किसी भी एकांगी प्रयास से पूरा नहीं किया जा सकता। कल्पना कीजिए कि बिहार या झारखंड की किसी बच्ची को बाल तस्करी द्वारा हरियाणा या पंजाब में लाकर बंधुआ मजादूरिन बनाकर रखा गया है, जहां वह यौन शोषण सहित कई प्रकार के अत्याचारों की शिकार बनी हुई है।
क्या बिहार में उसके गांव के स्कूल हेडमास्टर उस बच्ची की पढ़ाई सुनिश्चित कर सकेंगे? यह तो खुद शिक्षा मंत्री महोदय के बस की बात भी नहीं है, जब तक कि पुलिस-प्रशासन उसे मुक्त न करा दे, श्रम विभाग तथा बाल कल्याण समिति स्थानीय मजिस्ट्रेट के साथ संयुक्त कार्रवाई करके उस बच्ची की कानूनी रिहाई और वापसी का इंतजाम न करें, स्वास्थ्य विभाग तत्काल उपचार शुरू न करे और उसके गृह राज्य के राजस्व, बाल एवं महिला कल्याण आदि विभाग उसका पुनर्वास सुनिश्चित न करें।
स्कूल में दाखिले से पहले सामाजिक संगठनों या सरकारी अधिकारियों द्वारा उसकी मानसिक, मनोवैज्ञानिक व शैक्षणिक तैयारी भी जरूरी है। यदि सब कुछ ठीक-ठाक हो जाए, तब भी हेडमास्टर साहब, अभिभावकों और परिजनों का उस बच्ची की पढ़ाई के लिए तैयार हो जाना जरूरी है। साफ है, विषम परिस्थिति में रह रहे या हाशिये पर छूट गए बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित करना कई विभागों एवं मंत्रालयों के संयुक्त प्रयास से ही संभव हो सकता है, जिसका हमारे देश में घोर अभाव है।
पिछले साल भर में सरकार के लंबे -चौड़े दावों से इतर तीन महत्वपूर्ण गैर सरकारी रिपोर्टे जारी हुई हैं। पहली, ‘प्रथम’ की ‘असर-2010 रिपोर्ट’, दूसरी, ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की ‘शिक्षा पर जन सुनवाई रिपोर्ट-2011’ और तीसरी राष्ट्रीय शिक्षा संकुल की ‘एडवॉच रिपोर्ट-2011’। इन सभी में जो चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं, वे हैं कक्षाओं में बच्चों की उपस्थिति, स्कूलों में जरूरी सहूलियतों, पठन-पाठन तथा खेल सामग्री का अभाव और शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आदि।
शिक्षा मंत्री ने स्वयं स्वीकार किया है कि पिछले वर्ष प्राथमिक कक्षाओं में भर्ती की दर में गिरावट आई है। अलबत्ता कई राज्यों में स्कूलों में दाखिले की संख्या जरूर बढ़ी है, लेकिन जनसंख्या-वृद्धि के अनुपात में यह रफ्तार कम है। सरकारी आकंड़ो के मुताबिक, लगभग 75-76 लाख बच्चों ही आज स्कूलों से बाहर हैं। यदि स्कूल छोड़ चुके बच्चों की संख्या को भी जोड़ा जाए, तो कम से कम 5-6 करोड़ बच्चों शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के बावजूद स्कूलों में नहीं हैं।
भारत में विकलांगता के शिकार लगभग छह करोड़ व्यक्तियों में 20 प्रतिशत संख्या बच्चों की है। हर साल जन्म लेने वाले कुल बच्चों में 80 लाख से लेकर 1 करोड़ तक विकलांग होते हैं। स्कूल में भर्ती हो सकने में सामान्य बच्चों के मुकाबले विकलांग बच्चों की संभावना 5 गुना कम होती है। इसी तरह एचआईवी और एड्स के संक्रमण के शिकार 22 लाख बच्चों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भले ही शिक्षा मंत्रालय बड़ी संख्या में स्कूल भवन बनवा दे, अधिक शिक्षकों की नियुक्ति हो जाए, बजट पर्याप्त मात्रा में बढ़ जाए और दूसरी सभी सुविधाएं उपलब्ध करा दी जाएं, तो भी खदानों, कारखानों या घरों में बंधुआ बने बच्चे अपने आप स्कूल नहीं पहुंच पाएंगे।
पिछले वर्ष बने शिक्षा के अधिकार के कानून, केंद्र व राज्य सरकारों की शिक्षा नीतियों तथा सर्वशिक्षा अभियानों जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में इस बात का कोई जवाब नहीं मिलता कि उपरोक्त श्रेणी के बच्चों को स्कूल तक लाने और पढ़ाई पूरी कराने के क्या उपाय किए गए हैं। न ही इन समस्याओं की ठीक-ठीक पहचान की गई। अलग से संसाधन मुहैया कराना तो और भी दूर की बात है। इस सिलसिले में मौलिक उपाय खोजे जाने चाहिए। उदाहरण के तौर पर, तमाम भ्रष्टाचार और सीमाओं के बावजूद हमारे देश में चल रहा मध्याह्न भोजन का कार्यक्रम गरीब बच्चों को स्कूलों की तरफ आकर्षित करने में काफी सफल रहा है। मात्र इतने पर ही संतुष्ट होकर इसी का ढिंढोरा पीटते रहना उचित नहीं है।
ईंट-भट्ठे, खदान या सर्कस में काम कर रही एक गुलाम बच्ची को स्कूल में देखने का सपना किसी भी एकांगी प्रयास से पूरा नहीं किया जा सकता। कल्पना कीजिए कि बिहार या झारखंड की किसी बच्ची को बाल तस्करी द्वारा हरियाणा या पंजाब में लाकर बंधुआ मजादूरिन बनाकर रखा गया है, जहां वह यौन शोषण सहित कई प्रकार के अत्याचारों की शिकार बनी हुई है।
क्या बिहार में उसके गांव के स्कूल हेडमास्टर उस बच्ची की पढ़ाई सुनिश्चित कर सकेंगे? यह तो खुद शिक्षा मंत्री महोदय के बस की बात भी नहीं है, जब तक कि पुलिस-प्रशासन उसे मुक्त न करा दे, श्रम विभाग तथा बाल कल्याण समिति स्थानीय मजिस्ट्रेट के साथ संयुक्त कार्रवाई करके उस बच्ची की कानूनी रिहाई और वापसी का इंतजाम न करें, स्वास्थ्य विभाग तत्काल उपचार शुरू न करे और उसके गृह राज्य के राजस्व, बाल एवं महिला कल्याण आदि विभाग उसका पुनर्वास सुनिश्चित न करें।
स्कूल में दाखिले से पहले सामाजिक संगठनों या सरकारी अधिकारियों द्वारा उसकी मानसिक, मनोवैज्ञानिक व शैक्षणिक तैयारी भी जरूरी है। यदि सब कुछ ठीक-ठाक हो जाए, तब भी हेडमास्टर साहब, अभिभावकों और परिजनों का उस बच्ची की पढ़ाई के लिए तैयार हो जाना जरूरी है। साफ है, विषम परिस्थिति में रह रहे या हाशिये पर छूट गए बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित करना कई विभागों एवं मंत्रालयों के संयुक्त प्रयास से ही संभव हो सकता है, जिसका हमारे देश में घोर अभाव है।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
विकास कुमार गर्ग