शक्ल हो बस आदमी का क्या यही पहचान है।ढूँढ़ता हूँ दर-ब-दर मिलता नहीं इन्सान है।।
घाव छोटा या बडा एहसास दर्द का एक है।दर्द एक दूजे का बाँटें तो यही एहसान है।।
अपनी मस्ती राग अपना जी लिए तो क्या जीए।जिंदगी, उनको जगाना हक से भी अनजान है।।
लूटकर खुशियाँ हमारी अब हँसी वे बेचते।दीख रहा, वो व्यावसायिक झूठी सी मुस्कान है।।
हार के भी अब जितमोहन का हार की चाहत उन्हें।ताज काँटों का न छूटे बस यही अरमान है।।
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विकास कुमार गर्ग