मेरी कलम से

Sunday, December 5, 2010

वो मेरे नक्श-ओ-निशा मिटने आया थाऔर मैं ज़मी में ख़ुद को छुपा आया था

वो मेरे नक्श-ओ-निशा मिटने आया थाऔर मैं ज़मी में ख़ुद को छुपा आया था
तेरे सितम का निशान लाया साथ अपनेशब्'ऐ फिराक का एक लम्हा चुरा आया था
किसी नज़र को तो मेरी तलाश नही थीसो मैं ख़ुद से ही नज़र बचा आया था
वो बस अपने फ़राह के लिए आते थे मिलनेउन्हें अपना समझ मैं ज़ख्म दिखा आया था
दिल के टूटते ही अचानक मैं नादां से दाना हुआइस तजुर्बे की क्या कीमत चुका आया था
अफ़सोस नही के मेरा दुश्मन मुझसे जीत गया मलाल यह है की मेरे महबूब ने उसे जिताया था
नम निगाह देख के हमदर्दी ना जाताये तो मैं चश्म का भोझ गिरा आया था
सुपुरत'ऐ खाक कर के ख्वाबों को आपनेमैं वहां की घांस भी जला आया था
तेरे जाने के बाद भी तुझे छोड़ ना पायासम्शन से मैं तेरी राख़ चुरा आया था
वो मांगते थे इश्क की गवाही मुझसेमैं तो कबका जुबां दफ़न कर आया था
जाते जाते भी तेरी याद ना गई दिल सेतो मैं अब ख़ुद को ही भुला आया था
बाद'ओ जाम ही मेरे फाजिल'ऐ उमर हुएतो मैं मैकदे में ही घर बसा आया था
कतरा बन के अटका हूँ तेरी पलकों परदेख ना नज़र झुका के गिर जाऊंगा

No comments:

Post a Comment

आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
विकास कुमार गर्ग