मेरी कलम से

Monday, September 5, 2011

रात जुदाई की

अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की
तुम क्या समझो तुम क्या जानो बात मेरी तन्हाई की

कौन सियाही घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में
मैंने आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की

वस्ल की रात न जाने क्यूँ इसरार था उनको जाने पर
वक़्त से पहले डूब गए तारों ने बड़ी दानाई की

उड़ते-उड़ते आस का पंछी दूर उफ़क़ में डूब गया
रोते-रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की

2 comments:

  1. उड़ते-उड़ते आस का पंछी दूर उफ़क़ में डूब गया
    रोते-रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की ...

    बहुत खूब है आपके दर्द का फ़साना भी .. लाजवाब गज़ल है ..

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  2. bahut bahut dhnyavad digamber ji

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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
विकास कुमार गर्ग